Monday, December 31, 2012

आधुनिक ज़माना ?




“मुझे तुमसे कुछ बोलना है. मैंने शुरू में तुम्हे रिजेक्ट कर दिया था, पर मेरे पास और कोई चॉइस नहीं थी ...... मुझे तुम्हारा पता नहीं, देखो हम इस पे आराम से बात करते सकते हैं...” अनुज ने थोडा हिचकिचाते हुए यह बात बोल डाली.

दुल्हन के लिबाज़े में बैठी काव्या, अभी तक दुल्हन की तरह कैसे शरमाया जाए, उसका पूरा अनुकरन कर रही थी. पर अपनी सुहागरात में अपने पति के मुह से यह बात सुनकर वोह अवाक रह गयी. पहले की तरह आँखें नीचे करके बैठी रहे, उसे क्रूर दृष्टि से देखे, उसके साथ हाँ में हाँ मिलाये, या इस बात को पी जाये, उसकी  समझ में नहीं आ रहा था कि वोह किस तरह से प्रतिक्रिया करे. एक किताब की तरह उसके दिमाग ने पिछले साल के पहले पन्ने को खोल दिया.

काव्या अपने दोस्तों के साथ कॉलेज के गार्डन में बैठी थी. उसके बगल में समर भी था. हसी मज़ाक में ही किसी ने एक मोटे लड़के पर टिप्पणी कर दी.

“मंदीप तेरी शर्ट का बटन जो बहार निकलने को तैयार है, अगर टूट गया ना, तोह गोली की तरह किसी को चीरता हुआ जायेगा.”

यह सुनते ही सब हस पड़े. हसी काव्या भी, पर उसकी हसी में थोड़ा संकोच था. शायद ऐसा मज़ाक कभी सबके सामने उसका भी उड़ जाये, इसका बात का उसे डर था. समर ने उसकी आँखों में उस असहजता को पढ़ लिया.

“चलो, देखते हैं आज शाम को कोई अच्छा प्ले लगा है या नहीं.” समर ने उठते हुए कहा.

काव्या समझ गयी की समर ने यह अचानक से यह बात कहाँ से उठा दी. उसने अपना बैग उठाया और समर के साथ कंप्यूटर लैब की तरफ चल पड़ी.

रास्ते में चलते हुए दोनों कुछ नहीं बोले. उनके तीन साल पुराने रिश्ते में अब यह चुप्पी अजीब नहीं लगती थी. ऐसा महसूस नहीं होता था कि ज़बरदस्ती कोई न कोई बात कह के इसको भरा जाये. इस मौन में भी एक खुबसूरत सा सुकून था.

“काव्या जैसे जैसे कॉलेज ख़तम होने के दिन पास आ रहे हैं, वैसे वैसे बेचैनी बढ़ रही है. इतनी सारी बातें दिमाग में चल रही हैं, ऐसा लगता है करने को इतना कुछ बचा है, और समय उतना ही सीमित है” समर ने अपने मन की बात कहकर मौन को तोड़ा.

काव्या उसकी इस बेचैनी से अवगत थी. समर को एक अच्छी नौकरी चाहिए थी ताकि काव्या के पापा से वोह रिश्ते की बात कर सके. पर बात नौकरी की नहीं थी, बात जिस मुद्दे की थी, वोह समर को बताने में असमर्थ थी. देसी घराने से ताल्लुक रखने वाले उसके पापा को अपनी बेटी का हाथ एक पहाड़ी लड़के के हाथ में देना रास नहीं आएगा. उनकी इस संकीर्ण मानसिकता को बदलना न तोह उसके और ना ही समर के बस में था. काव्या ने तय की पहले वोह खुद पापा से बात करके देखेगी.

“काव्या मैंने तुमसे कुछ कहा है. कुछ जवाब तोह दो?” विचारों के समंदर में डूबी हुई काव्या समर की यह बात सुनके क्षण भर में वर्तमान में वापिस आ पंहुची.

“तुम क्यूँ नौकरी की चिंता कर रहे हो समर. कुछ दिन में कम्पनीज़ आना शुरू हो जाएँगी. आई ऍम शुअर कॉलेज एंड होने तक तुम प्लेस्ड हो चुके होगे.” यह बोलके उसने समर को तो तसल्ली दे दी, पर खुद को नहीं दे पायी.

समर उत्तराँचल के एक छोटे शहर से आया एक लड़का था. दिल पानी की तरह एकदम साफ़. खुद दिखने में काफी अच्छा था पर रूप का गुरूर उसे कभी नहीं हुआ. काव्या और समर कुछ ही दिनों में अच्छे दोस्त बन गए थे. और दोनों इस बात से पूरी तरह से वाकिफ थे की यह दोस्ती उन्हें किस तरफ ले जा रही थी. काव्या बहुत ख़ूबसूरत तोह नहीं पर आकर्षक थी. समर के प्यार में इन सतही परतों से कोई कमी नहीं आई. वोह तोह काव्या के स्वभाव और आत्मविश्वास पर फ़िदा था.

आज काव्या अपने पापा के सामने समर की बात रखने वाली थी. सुबह से ही वोह सही समय के इंतज़ार में थी. आज इतवार था इसलिए पापा को ऑफिस जाने की चिंता भी नहीं थी. एक हाथ में चाय की प्याली और दूसरे में अखबार लिए वे आराम से ड्राइंग रूम के सोफे एक एक कोने में विराजमान थे. काव्या को पापा का मूड देखके लगा की यह सही समय है उनसे बात करने की. वोह धीरे से आई और सोफे के दूसरे कोने में जाके बैठ गयी.

“पापा एक बात करनी थी आपसे.” बहुत साहस जुटाकर उसने बोला.

“ह्म्म्म.... कितने पैसे चाहिए बेटा.” पापा ने आरामतलब होकर कहा.

“नहीं पैसे नहीं चाहिए.” पापा की बात सुनकर वोह अपनी हसी रोक नहीं पायी.

“पैसे नहीं चाहिए, तोह और क्या बात करनी है मेरी चिड़िया को मुझसे.” अखबार मोड़ के पापा ने मेज़ पर रख दिया जैसे उन्हें एहसास हो गया हो की काव्या उनसे कुछ महत्वपूर्ण बात करना चाहती है.

“पापा आपको नहीं लगता अब मेरी शादी की उम्र हो गयी है? आपको मेरे लिए रिश्ता देखना चाहिए?” मज़ाक में काव्या ने यह बात बोल डाली फिर खुद की ही कही हुई बात उसे अजीब लगने लगी.

“हे भगवान्, क्या ज़माना आ गया है. पहले लड़कियां शादी के नाम पे शर्माती फिरती थी और यहाँ देखो, मुह खोल के पूरी खोल के पूरी डिमांड है..” यह बोल के पापा हसने लगे.

“वैसे मैं भी तुमसे यह बात करने वाला था. पर तुम्हारी नौकरी लगने का इंतज़ार कर रहा था. तुम्हे आत्म निर्भर बनना है ना. पर अच्छा हुआ तुमने यह विषय खुद ही उठा लिया. मेरे ऑफिस के कुलीग है न मिस्टर शर्मा, उनका बेटा भी तुम्हारी तरह सॉफ्टवेर इंजिनियर है. कल उनसे मेरी बात ......”

“पापा अगर मैं ही आपका यह काम हल्का कर दूँ तोह?” काव्या ने पापा की बात काटते हुए कहा, अन्दर से सहमी हुई काव्या बाहर से निस्संकोच यह बात कह गयी.
यह बात सुनकर आधे मिनट तक पापा काव्या को देखते रहे जैसे उन्हें यकीन नहीं आ रहा हो की सचमुच काव्या ने यह बात उनसे बोली हो.

“मज़ाक कर रही हो ना.” पापा अब भी काव्या को घूर रहे थे और काव्या  उनसे नज़र बचा रही थी.

“पापा एक लड़का है, एक बार मैं आपको उनसे मिलाना चाहती हूँ.”

“हमारी बिरादरी का है?” पापा की आवाज़ में अब एक कठोरता थी.

“नहीं, देसी नहीं, पहाड़ का है, पर वोह बहुत अच्छा लड़का है पापा, वोह मुझसे....”
पहला वाक्य सुनने के बाद, पापा उसकी बात अनसुनी करके उठकर कमरे से बाहर चले गए.

काव्या पापा की इस प्रतिक्रिया को समझ नहीं पायी. ना तोह उन्होंने गुस्सा दिखाया और ना ही हामी भरी. बस उठ के चले गए. उसकी बात पूरी तक नहीं होने दी. काव्या असमंजस में पड़ गयी, यह कहाँ की आधुनिकता है. वे चाहते हैं मैं पढूं लिखूं, अच्छी नौकरी करूँ, आत्म निर्भर बनूँ. पर शादी की बात हो तोह अपनी पसंद के लड़के से शादी की बात इतना बड़ा पाप बन गयी?

अनुज के एक हाथ में चिप्स का पैकेट था और दूसरा हाथ उसका लैपटॉप के कीबोर्ड पर चल रहा था. दोस्त बगल में बैठा था और दोनों की कोशिश ज़ारी थी अनुज के लिए भावी पत्नी देखने की. सुबह से दोनों मैट्रिमोनियल साईट पे बैठे थे और अलग अलग लड़कियों की प्रोफाइल देखके मज़ाक उड़ाने में उनका अच्छा टाइमपास हो रहा था. तभी काव्या की प्रोफाइल उनके सामने आती है. काव्या की बात सुनते ही काव्या के पापा ने जोर शोर से उसके लिए लड़का ढूँढना शुरू कर दिया था तथा किसी भी मैट्रिमोनियल साईट को नहीं छोढा था.

“अबे इसको देख, क्या मस्त बाइसेप्स हैं. इतने तोह मेरे भी नहीं होंगे बॉस.” अनुज के यह कहते ही उसका दोस्त जोर से हसने लगा. इतने में पैकेट से थोड़े से चिप्स गिर जाते हैं. “शिट मैन” बोलके वोह फिर काव्या की फोटो को देखने लगता है.

“आगे बढ़ ना, पसंद आ गयी क्या तुझे?” दोस्त उसे टोकते हुए बोलता है.

“ये? अबे बीवी चाहिए, पहलवान नहीं...पर शायद मैं इसके घरवालों को जानता हूँ.” अनुज थोडा सोचता है , फिर किसी और की प्रोफाइल देख के बोलता है “चल छोड़, अबे ये वाली देख, क्या मस्त है. सही है ना, तेरी भाभी बन्ने के लायक, इससे बात चलता हूँ”.. यह बोल के दोनों फिर अपने टाइम पास में व्यस्त हो जाते हैं.

अनुज अपनी पसंद की हुई लड़की से रिजेक्ट होके इस बार पापा के कहे हुए रिश्ते को देखने उनके साथ चला गया. लड़की जब अपने कमरे से बाहर आई तोह उसे गौर से देखने लगा जैसे पहले कहीं देखा हो. यह वोही थी जिसकी प्रोफाइल देख के उसने अपने दोस्त के साथ मिलके मज़ाक उड़ाया था, यह काव्या थी.
ना अनुज काव्या को देख के मुस्कुराया, ना काव्या अनुज को देख के. दोनों के बस में कुछ नहीं था. दोनों के घरवालों ने हामी भर दी. अनुज के पापा ने जितने दहेज़ की बात रखी, सुनते ही काव्या के पापा ने हाँ कर दी. आनन् फानन में दोनों का रिश्ता तय हो गया.

शादी की पहली रात को अनुज के मुह से यह बात सुनके काव्या कुछ नहीं बोल 
पायी... वोह चुपचाप उठ के बाथरूम चली गयी. काव्या ने शादी के कपड़ों और गहनों का बोझ तोह उतार दिया था पर इस बात का बोझ उससे सहा नहीं जा रहा था.
कपडे बदल के वोह बिस्तर पर लेट गयी. अनुज भी बगल में लेटते ही अगले पांच मिनट में सो गया.

एक समर था जिसने काव्या के अंदरूनी व्यक्तित्व से प्यार किया था और एक अनुज था जो अपनी सतही सोच के परे ना तोह सोच पाया और ही सोचने की चाह रखी. पर येही अब उसका ‘पति’ था, उसके जीवन भर का हमसफ़र. पापा के इस बिरादरी के मान सम्मान के चक्कर में काव्या के मान सम्मान को दर दर पर कितनी चोटें मिलने वाली थी उसका उन्हें अंदाजा भी न था.



Friday, December 21, 2012

अनाम रिश्ते



उसे पता था की आज वोह पक्का ऑफिस के लिए लेट होगी। कल रात को नींद आ नहीं पायी, 2 बजे तक करवटें बदलती रही, और सुबह नींद खुल तो घडी की सुईयां देख के अवाक रह गयी। यह निश्चित करने के लिए की कहीं वोह सपने में टाइम तो नहीं देख रही , उसने दोबारा अपना मोबाइल चेक किया, पर उसमे दस मिनट और निकल चुके थे। जल्दी से वोह तौलिया लेकर बाथरूम में घुसी और अगले आधे घंटे में हल्का फुल्का नाश्ता करके तैयार हो गयी। यह उसके हिमाचल का छोटा सा शहर नहीं था जहाँ अपनी बाईक उठाई और मंजिल आ गयी 15 मिनट में। यह बम्बई है , कहने को गोरेगांव से कांदवली 2 स्टेशन दूर तब भी घर से ऑफिस पहुचने में पूरा एक घंटा लगता था। आज उसने सोचा वो लोकल नही,  रिक्शे से जाएगी।

रिक्शा पौन घंटे में तो पंहुचा ही देगा . जल्दी जल्दी बिल्डिंग से उतरी और देखा पास में ही एक रिक्शा खड़ा हुआ है। उसने रिक्शेवाले को कांदिवली बोला और रिक्शावाले ने इस तरह से हामी भरी जैसे उसे पता हो की मैडम को कहाँ जाना है। उसे इस बात पर थोडा अचरज हुआ पर इतना सोचने का टाइम नहीं था उसके पास . तुरंत वोह रिक्शे में जा बैठी। रिक्शा चलने लगा। उसने नज़र बचाकर रिक्शेवाले की शकल देखी। लगभग 50-55 की बरस का। आधे काले आधे सफ़ेद बाल। यूनिफार्म इतनी साफ़ सुथरी जैसे सुबह ही इस्त्री की हो. यह वोही था जिसने उसे कल सुबह स्टेशन तक छोढ़ा था। वोह सोच में पड़ गयी। पर उसे यह बात कोई सोचने वाली बात लगी नहीं। उसे लगा किताब पढ़ लेगी तोह शायद समय का बेहतर उपयोग हो जायेगा। तभी एका एक रिक्शेवाले ने बोला।

रिक्शेवाला- मैडम आप साढ़े नौ बजे रोज़ घर से निकलती हैं। आज थोडा देर हो गयी शायद।

वोह- हाँ, इसीलिए सीधे रिक्शे से ऑफिस जा रही हूँ।

यह बोलके उसने अपना मुह फिर किताब में घुसा  लिया। रिक्शेवाले की बोलने में कपट तो नहीं था , एक मासूमियत ही थी . पर तब भी वोह इस बात पर यकीन नहीं करना चाह रही थी। वोह उसकी मासूमियत पर यकीं करे भी कैसे , आये दिन अखबारों और न्यूज़ में तरह तरह की बुरी खबरे पढ़ के उसका सतर्क रहना बनता था। क्या पता कब कोई इंसान अन्दर से जानवर निकल जाये। उसकी आँखें किताब पे टिकी थी पर मन इन्ही उलझनों में अटका हुआ था। उसे याद आया की एक बार जो वो अपनी दोस्त के साथ ऑफिस आई थी तो इसी  रिक्शेवाले ने छोड़ा था। इसने रास्ते में खूब बातें की थी, दोस्त को उसका बातें करना ज्यादा पसंद न आया। जब रिक्शावाला अपनी बातों में मग्न था तो दोस्त ने चुपके से पैनी आँख से उसे गुस्से में देखा। उसने हस के टाल दिया। यह लोग भी तो दिन भर इधर उधर करते थक जाते होंगे, इनसे बात करने को भी कोई नहीं होता होगा।

वोह इस सोच में डूबी हुई ही थी कि रिक्शा लाल सिग्नल पर जाके रूका और एक भिकारी ने आके उससे भीक मंगनी शुरू कर दी। किताब इस समय पे सबसे अच्छा साथी होती है। बस किताब में अपना सर घुसाए रखो, लोगों को लगेगा की आप पढने में इतने मग्न हो की आपने कुछ सुना ही नहीं। थोड़ी देर बाद उन्हें भी अपना जतन फीका लगेगा और वोह भी चले जायेंगे। रिक्शा आगे बढ़ा। उसने महसूस किया की रिक्शेवाला शोर्ट कट्स से रिक्शा ले जा रहा था जैसे देर उसे नहीं रिक्शेवाले को हो रही हो। 10 मिनट बाद रिक्शा ठीक उसके ऑफिस के सामने रुक गया। यह देखके उसे यकीन हो गया की इसी रिक्शेवाले ने उसे पहले दो तीन बार छोढ़ा है क्यूंकि उसने एक बार भी रास्ते में अपने ऑफिस का पता नहीं बताया।


पैसे देने को जब उसने पर्स निकाला तोह रिक्शेवाले ने बोला-

रिक्शेवाला- मैडम इतना ही होता है न यहाँ का , ज्यादा तोह नहीं हो गया।

मैडम - नहीं ठीक है दादा, इतना ही देती हूँ जब भी रिक्शे से जाती हूँ।थैंक यू।

जैसे ही उसने रिक्शेवाले को रुपये थमाए , उसने पूरा हाथ उठा के सलामी दी। यह देख के उसे अचरज भी हुआ और हसी भी छूट गयी। एक लम्बी सी मुस्कान के साथ उसने ऑफिस में प्रवेश किया। उसकी कूलीग ने उसे छेढ़ते हुए पूछा की वोह इतना मुस्कुरा क्यूँ रही है। उसे लगा की अगर वोह बताएगी रिक्शेवाले की वजह से , तो सब उस पर हस पड़ेंगे। कोई पुरानी बात याद आ गयी, यह बोलके वो अपनी ऑफिस की डेस्क पे बैठ गयी।

अगली सुबह वो समय पे उठी थी। बिल्डिंग से उतरी तो देखा वोही रिक्शेवाला खड़ा है। रिक्शेवाले ने उसे सलामी भरी।

रिक्शेवाला- कहाँ जाएँगी मैडम, स्टेशन या ऑफिस।
वोह- स्टेशन।

पता नहीं क्यूँ , वोह रिक्शेवाले के साथ बहुत विनम्र होके बोल नहीं पायी। रास्ते में रिक्शावाला कुछ कुछ बोले जा रहा था और वोह हाँ ना में जवाब देके इधर उधर देख रही थी। वो उसकी बात को सुन्ना चाह रही थी उससे बातें करना चाह रही थी पर नहीं कर पा रही थी। समाज की बनायीं हुई डोर तो उसके हाथ से  नहीं छूट  जाती? या उसके अपनापन  दिखाने से रिक्शावाला कुछ और तो न समझ बैठता? यह  सब सोच के उसने चुप रहना ही बेहतर समझा। रिक्शा स्टेशन पहुचने ही वाला था की वो अचानक पूछ बैठी।

वोह- आप मेरे घर के आस पास रहते हो क्या ?

रिक्शेवाला- नहीं मैडम, क्यूँ?

वोह- सुबह सुबह आपका रिक्शा रोज़ वहीँ दिखता  है.

रिक्शावला - मैडम बुरा मत मानना , पर सुबह सुबह आपके हाथ से बोनी होती है, तो पूरा दिन अच्छा बीतता है, पैसे भी ठीक ठाक मिल जाते है।

वोह- आप इतना मत सोचिये, वहम है यह, और प्लीज मेरे आने जाने का समय तय नहीं रहता है, आप ही को नुक्सान होगा, ऐसे रोज़ मत आईये।

रिक्शेवाला कुछ नहीं बोला। रिक्शा स्टेशन पर पहुच चुका था। उसने पैसे लिए, एक सलामी भरी और चला गया।वोह सोचती रही, क्या उसने सही किया या गलत। किसी और को बताएगी तोह वोह येही बोलेगा की सही किया आजकल किसी का भरोसा नहीं। खुद को तस्सली देकर वो ट्रेन में चढ़ गयी।


अगले दिन ऑफिस जाने को वोह बिल्डिंग से बहार निकली तो रिक्शेवाला नहीं था। उसके बाद वोह कभी नहीं आया। वोह न तो यह बात किसी को बता सकी, न ही खुद भूल  पायी . बस एक टीस  की तरह यह बात और रिक्शेवाले की मासून मुस्कान उसके मन में हमेशा के लिए रह गयी।

Tuesday, October 30, 2012

ट्रेन का सफ़र


मुझे ट्रेन का सफ़र हमेशा से ही पसंद था. ट्रेन की रफ़्तार बहुत पसंद है. चाहती थी की मेरे जीवन की दौड़ भी इतनी ही तीव्र रहे. शायद उन फालतू की सोच से बचना चाहती थी जो ज़बरदस्ती  खाली दिमाग में आकर समय  व्यर्थ करते हैं. वोह अनावश्यक सोच जो मैं बिजी होने की वजह से आसानी से परे कर सकती थी. पर जैसे ही ट्रेन की रफ़्तार धीमी होती, मेरे अन्दर की  बेचैनी बढती जाती. पता नहीं क्यूँ मुझे ट्रेन की तेज़ गति में इतना रोमांच नज़र आता. 

ट्रेन अभी खड़ी है एक स्टेशन पर काफी समय से. बड़ा अजीब लग रहा है. ज़िन्दगी थम गयी है. मैं अपने मुंबई के फ्लैट में छिप के बैठी हूँ. बाहर बारिश जोर से बरस रही है. जब भी मुंबई में बारिश आती, अपने होने का एहसास सबको कराती. देहरादून का घर होता तो मम्मी पापा साथ में होते. उनके लिए मैं चाय बना रही होती. कम से कम बोर तो नहीं हो रही होती. मम्मी काफी डाइट कोन्स्किऔस हैं तो चाय के साथ पकोड़े तो नहीं बनती बारिश में पर हाँ अपने फेवरेट लो कैलोरी  मारी के बिस्कुट सबको खिलाती. पर अभी बम्बई में हूँ, अकेली. फ्लैट खली है, बाकी  फ्लैट मेटस बाहर गए हैं अपने अपने काम से. यह वोह समय है जब मेरे हाथ में नौकरी नहीं है. मैं  नौकरी की तलाश में हूँ. दोस्त अपने अपने कामों में बिजी हैं. और मैं घर में अकेली आँखों में आंसू लिए हुए आसमान को देख रही हूँ. दिल अन्दर ही अन्दर बारिश कर रहा है पर आँखें एकदम सूखी. कभी कभी आश्चर्य होता है की कौन चुरा ले गया मेरे आँखों का पानी. अनावश्यक सोच मेरे दिमाग को घेर रही है. उसमे कौतुहल मचा रही है. बीता हुआ समय क्या था, अभी क्या है. आने वाला कैसा होगा, यह सब प्लैनेट्स की तरह गोल गोल मेरे दिमाग के ऑर्बिट में घूम रहे हैं. यह डिप्रेशन है या पागलपन पता नहीं. 

ट्रेन प्लेटफार्म से चल पड़ी. धीरे धीरे रफ़्तार पकड़ रही है. मेरी मंजिल पास आ रही है. मध्य प्रदेश में मैं अपनी टीम के साथ विज्ञानं का खेल खेलने जा रही हूँ. एक उत्साह है नयी सुबह का. आजकल समय कैसे कटता है पता नहीं चलता. सफ़र और सफ़र के साथी दोनों अच्छे हैं. ज़िन्दगी आगे सुहावनी नज़र आ रही है. 

Friday, March 30, 2012

Adulthood

शब्द अचानक इतने नकली क्यूँ लगने लग गए

भावनाएं बचकानी क्यूँ बन गयी

प्यार धुंधलाने क्यूँ लग गया

साहस डगमगाने क्यूँ लग क्या

खुद की philosophies में हसी क्यूँ आने लग गयी

हर सोच व्यर्थहीन क्यूँ हो गयी

राहें दिशाहीन क्यूँ हो गयी

क्या इसी को maturity कहते हैं

जब आँखें खुल जाये

और दिल अविश्वासी हो जाये

क्या इसी का नाम Adulthood है?