Tuesday, October 30, 2012

ट्रेन का सफ़र


मुझे ट्रेन का सफ़र हमेशा से ही पसंद था. ट्रेन की रफ़्तार बहुत पसंद है. चाहती थी की मेरे जीवन की दौड़ भी इतनी ही तीव्र रहे. शायद उन फालतू की सोच से बचना चाहती थी जो ज़बरदस्ती  खाली दिमाग में आकर समय  व्यर्थ करते हैं. वोह अनावश्यक सोच जो मैं बिजी होने की वजह से आसानी से परे कर सकती थी. पर जैसे ही ट्रेन की रफ़्तार धीमी होती, मेरे अन्दर की  बेचैनी बढती जाती. पता नहीं क्यूँ मुझे ट्रेन की तेज़ गति में इतना रोमांच नज़र आता. 

ट्रेन अभी खड़ी है एक स्टेशन पर काफी समय से. बड़ा अजीब लग रहा है. ज़िन्दगी थम गयी है. मैं अपने मुंबई के फ्लैट में छिप के बैठी हूँ. बाहर बारिश जोर से बरस रही है. जब भी मुंबई में बारिश आती, अपने होने का एहसास सबको कराती. देहरादून का घर होता तो मम्मी पापा साथ में होते. उनके लिए मैं चाय बना रही होती. कम से कम बोर तो नहीं हो रही होती. मम्मी काफी डाइट कोन्स्किऔस हैं तो चाय के साथ पकोड़े तो नहीं बनती बारिश में पर हाँ अपने फेवरेट लो कैलोरी  मारी के बिस्कुट सबको खिलाती. पर अभी बम्बई में हूँ, अकेली. फ्लैट खली है, बाकी  फ्लैट मेटस बाहर गए हैं अपने अपने काम से. यह वोह समय है जब मेरे हाथ में नौकरी नहीं है. मैं  नौकरी की तलाश में हूँ. दोस्त अपने अपने कामों में बिजी हैं. और मैं घर में अकेली आँखों में आंसू लिए हुए आसमान को देख रही हूँ. दिल अन्दर ही अन्दर बारिश कर रहा है पर आँखें एकदम सूखी. कभी कभी आश्चर्य होता है की कौन चुरा ले गया मेरे आँखों का पानी. अनावश्यक सोच मेरे दिमाग को घेर रही है. उसमे कौतुहल मचा रही है. बीता हुआ समय क्या था, अभी क्या है. आने वाला कैसा होगा, यह सब प्लैनेट्स की तरह गोल गोल मेरे दिमाग के ऑर्बिट में घूम रहे हैं. यह डिप्रेशन है या पागलपन पता नहीं. 

ट्रेन प्लेटफार्म से चल पड़ी. धीरे धीरे रफ़्तार पकड़ रही है. मेरी मंजिल पास आ रही है. मध्य प्रदेश में मैं अपनी टीम के साथ विज्ञानं का खेल खेलने जा रही हूँ. एक उत्साह है नयी सुबह का. आजकल समय कैसे कटता है पता नहीं चलता. सफ़र और सफ़र के साथी दोनों अच्छे हैं. ज़िन्दगी आगे सुहावनी नज़र आ रही है.